होली का पावन पर्व दुनिया भर में रंगों के त्यौहार के रूप में जाना जाता है। इसे रंगीन पानी और रंगीन गुलाल के साथ खेलकर और स्वदिष्ट मिठाइयाँ व्यंजन खाकर बहुत हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
हिंदू त्योहारों का आध्यात्मिक महत्त्व होता है और होली का सन्देश भक्त प्रह्लाद से सम्बंधित है, जो बाल्यावस्था से ही परात्पर ब्रह्म के पूर्ण शरणागत थे। होली का पर्व भगवान् की सर्वव्यापक्ता का पावन सूचक है।
प्रह्लाद राक्षसराज हिरण्यकशिपु का पुत्र था। बचपन से ही प्रह्लाद को अपनी आयु के अन्य असुर बालकों के साथ खेलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह सदैव प्रभु की मधुरिमा में खोए रहते थे। भगवान् श्री कृष्ण की कृपा ने उनके मन को इतना मोहित कर लिया था कि उन्हें बाहरी संसार की सुध ही नहीं रही। फिर भी बिना किसी सोच-विचार के खाना, पीना, सोना, बैठना, चलना आदि जैसे शारीरिक क्रियाकलाप करते रहते थे।
शुक्राचार्य राक्षसों के कुल गुरु थे। उनके दो पुत्र-शंड और अमर्क ने प्रह्लाद और अन्य राक्षस बालकों को राजनीति, अर्थशास्त्र आदि की शिक्षा देने को नियुक्त किया था। एक दिन, प्रह्लाद के पिता, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा-"बेटा! तुम्हें क्या पसंद है?" प्रह्लाद ने बिना हिचकिचाये उत्तर दिया, "पिताजी! मुझे वन में जाकर श्री कृष्ण की अखंड भक्ति करना पसंद है।" इस उत्तर को सुनकर, हिरण्यकशिपु को उस पीड़ा से भी अधिक पीड़ा महसूस हुई, जो उसे भगवान् वारह के हाथों अपने प्यारे भाई की मृत्यु की खबर सुनकर महसूस हुई थी। हिरण्यकशिपु के कट्टर प्रतिद्वंद्वी श्रीकृष्ण की भक्ति! भाई का हत्यारे की उपासना पुत्र कर रहा है!
हिरण्यकशिपु ने शंड और अमर्क को आदेश दिया कि वे प्रह्लाद को अपने आश्रम में ले जाएँ और उसे साम (तर्क) , दाम (मौद्रिक प्रलोभन) , दंड, भेद (विभाजन पैदा करना) और राजाओं के उद्देश्य और राजनीतिक सिद्धांत तथा राजा के प्रजा के प्रति कर्तव्य की शिक्षा दें।
राजनीति, कूटनीति और राज्य कला में शिक्षा पूरी होने के बाद, गुरु पुत्र प्रह्लाद को उनकी शिक्षाओं का परीक्षण करने के लिए हिरण्यकशिपु के पास ले गए। प्रह्लाद ने अपने पिता को सम्मान दिया और हिरण्यकशिपु ने अपनी आँखों से प्रेम के आँसू बहाते हुए प्रह्लाद को प्यार से अपनी गोद में ले लिया। उन्होंने प्रह्लाद से पूछा, "बेटा, अब बताओ, तुम्हें क्या पसंद है? तुमने क्या सीखा? तुमने अपने गुरुओं से क्या समझा?"
"पिताजी! भगवान् विष्णु की भक्ति करने के 9 तरीके (नवधा भक्ति) हैं-भगवान् की महिमा, नाम, लीलाओं को सुनना, गाना और स्मरण करना, उनके चरण कमलों की सेवा करना, वैदिक अनुष्ठान द्वारा भगवान् का पूजन करना। उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम का वंदन करना, उनका सेवक या मित्र बन कर उनकी सेवा करना और किन्तु-परंतु लगाये बिना आत्मसमर्पण कर देना। पहले, भगवान् के प्रति समर्पण करो और फिर नवधा भक्ति करो। यही वह ज्ञान है जो मैंने अर्जित किया है।"
यह सुनकर हिरण्यकशिपु ने क्रोधित होकर प्रह्लाद को गोद से दूर फेंक दिया और अपनी शक्तिशाली सेना के सेनापति को प्रह्लाद को मारने का आदेश दिया। सेनापति ने प्रह्लाद को मारने के लिए अनेक प्रयास किए-उसने प्रह्लाद को ऊँचे पर्वत से धक्का देके, पानी में डुबा के, आग में जला के, हथियारों से, मत्त हाथियों से कुचलवा के, जहरीले साँपों से कटा के, जहर का प्याला आदि, लेकिन प्रह्लाद बच गया। यह देखकर हिरण्यकशिपु चिंतित हो गया। उसे प्रह्लाद को मारने का कोई अन्य उपाय नहीं सूझा। गुरुपुत्रों के परामर्श से हिरण्यकशिपु ने एक बार फिर प्रह्लाद को पढ़ने के लिए भेजा।
गुरु के पुत्रों ने प्रह्लाद को धर्म यानी परिवार, समाज के प्रति कर्तव्यों का पालन, अर्थ यानी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सफलता प्राप्त करने के साधन और काम यानी सभी प्रकार के भोगों के बारे में शिक्षा देना शुरू किया। प्रह्लाद एक विनम्र सेवक की तरह आश्रम में रहते थे लेकिन उन्हें गुरु के पुत्रों द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान तनिक भी नहीं सुहाता था।
एक दिन, जब उसके शिक्षक किसी घरेलू काम से बाहर गए थे, प्रह्लाद अपने राक्षस सहपाठियों को उपदेश देने लगे। प्रह्लाद ने उनसे कहा, " जीव को बचपन से ही श्री कृष्ण के चरण कमलों का आश्रय लेना चाहिए। भक्ति को भविष्य पर छोड़ना बहुत बड़ी भूल है। वेद कहते हैं-भक्ति अभी करो (अर्थात विलंब न करो) क्योंकि संभव है कि कल तक तुम जीवित ही न रहो। यह मानव योनि अमूल्य है परंतु कब छिन जाये पता नहीं। इसलिए, जीव को श्री कृष्ण भक्ति तुरंत करनी चाहिए और इसे भविष्य पर नहीं छोड़ना चाहिए। भगवान् के चरणकमलों की शरण लेना ही इस मानव रूप की एकमात्र सफलता है। ईश्वर सभी प्राणियों का स्वामी, मित्र, प्रियतम और आत्मा हैं, इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए अधिक प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है।
प्रह्लाद ने बच्चों को आगे बताया कि श्री कृष्ण की कृपा केवल निःस्वार्थ भक्ति से ही प्राप्त की जा सकती है, आध्यात्मिक उत्थान के अन्य सभी साधन परमानंद नहीं दे सकते। वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है जहाँ आप कुछ समय के लिए इंद्रियों के सुखों का आनंद लेते हैं। अन्य योनि जैसे जड़ जीव (पेड़, पौधे आदि) और चेतन जीव (जैसे पक्षी, जानवर आदि) में भी सिद्धांत को समझने की बौद्धिक क्षमता नहीं है। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करना केवल मनुष्य योनि में ही संभव है। प्रह्लाद ने दोहराया, "मित्रों! मानव योनि में सबसे बड़ा उद्देश्य भगवान् कृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करना है।"
असुर बालकों ने उनसे पूछा–"भाई! तुम्हें यह ज्ञान किसने और कब दिया?"
इसके बाद प्रह्लाद ने कहानी सुनाई कि कैसे उसने अपनी माँ के गर्भ में यह ज्ञान प्राप्त किया, जब उसकी माँ कयाधु ऋषि नारद के आश्रम में रहती थी और ऋषि नारद ने विभिन्न ग्रंथों के दर्शन सुनाए और प्रह्लाद ने उन सभी व्याख्यानों को सुना, उन्हें याद किया और स्वयं भगवान् के शरणागत हो गए। भगवान् कृष्ण ने प्रह्लाद को माँ के गर्भ में अपने दिव्य रूप में दर्शन दिये। प्रह्लाद ने असुर बालकों को श्री कृष्ण की भक्ति करने का निर्देश दिया।
प्रह्लाद के प्रवचन सुनकर उनका मन भगवान् में लग गया। यह देखकर उनके गुरु डर गए और हिरण्यकशिपु को सूचित किया। क्रोध से जलते हुए हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को अपने हाथों से मारने का निश्चय किया। उसने दहाड़ते हुए प्रह्लाद से पूछा–"तेरा भगवान् कहाँ है?" प्रह्लाद ने कहा, "वह हर जगह है"। हिरण्यकशिपु ने कहा कि यदि वह सर्वव्यापी है, तो क्या वह इस स्तंभ में है? "प्रह्लाद ने उत्तर दिया," हाँ"। क्रोध से भरकर, हिरण्यकशिपु ने खंभे पर गदा से प्रहार किया और खंभा टूटा। उसमें से आधे शेर व आधे मनुष्य के रूप में भगवान् नरसिंह का भयावह रूप प्रकट हुआ। भगवान् नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को एक खिलौने की तरह उठाया और उसे दरबार के प्रवेश द्वार पर ले गए, जहाँ उन्होंने उसे अपनी जांघों पर लिटा कर पैने नाखूनों से फाड़ दिया।
भगवान् के हाथों और चेहरे पर खून लगा था, अत्यधिक क्रोध में हुँकार भर रहे थे। उनका ऐसा भयानक रूप देखकर माता लक्ष्मी, भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, शंकर सहित कोई भी उनके पास जाने का साहस नहीं जुटा सका। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें शांत करने के लिए प्रह्लाद को भेजा। प्रह्लाद को देखकर भगवान् नृसिंह का क्रोध तुरंत शांत हो गया। उन्होंने 5 वर्ष के प्रह्लाद के छोटे-छोटे पैरों को अपनी एक हथेली में रखा और दूसरा हाथ सिर पर रख कर आनंद में नाचने लगे। ब्राह्मस्पर्श पाकर प्रह्लाद आनंदित हो गये और आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगे।
नैतिक
भगवान् को इसकी परवाह नहीं है कि स्थान पवित्र है या अपवित्र। भगवान् सभी स्थानों में समान रूप से निवास करता है। भगवान् सर्वव्यापी है। उन्होंने हर स्थिती में प्रह्लाद की रक्षा करके और अंत में एक राक्षस के महल के खंभे से प्रकट होकर अपनी सर्वव्यापकता साबित की। यही होली का वास्तविक संदेश है।
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प्राणियों के सुहृत गोविंद राधे। विश्व में सर्वत्र व्याप्त बता दे॥ राधा गोविंद गीत 7024
भगवान् सब प्रानियों के अन्तःकरण में भी रहते हैं तथा संसार के प्रत्येक कण में भी व्याप्त हैं ।
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All the teachings of Jagadguruttam Shri Kripalu Ji Maharaj which is based on the timeless wisdom of the Vedas and other scriptures, presented in practical, easily understandable and modern context.
Jagadguru Kripalu Parishat: Publication Department offers this heartfelt tribute to our beloved and revered Badi Didi, Sushri Dr Vishakha Tripathi Ji.
Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj, whom we remember as the embodiment of one whose thoughts, resolves, and desires come true, eloquently described the qualities of Vishakha Sakhi, one of
People are confused by the story of Ajamila, not just in India, but all over the world. It is said that at the time of his death, Ajamila called out to his son. His son’s name was Narayana. In the world, when someone is close to death, he will
A Journey of Surrender and Love
The ultimate goal of every individual soul is only supreme divine bliss; to attain that, we exert constant effort every moment. But until now, we have not received that bliss. There are only two fields: the field of maya, the material power, and the
होली का पावन पर्व दुनिया भर में रंगों के त्यौहार के रूप में जाना जाता है। इसे रंगीन पानी और रंगीन गुलाल के साथ खेलकर और स्वदिष्ट मिठाइयाँ व्यंजन खाकर बहुत हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
हिंदू त्योहारों का आध्यात्मिक महत्त्व होता है और होली का सन्देश भक्त प्रह्लाद से सम्बंधित है, जो बाल्यावस्था से ही परात्पर ब्रह्म के पूर्ण शरणागत थे। होली का पर्व भगवान् की सर्वव्यापक्ता का पावन सूचक है।
प्रह्लाद राक्षसराज हिरण्यकशिपु का पुत्र था। बचपन से ही प्रह्लाद को अपनी आयु के अन्य असुर बालकों के साथ खेलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह सदैव प्रभु की मधुरिमा में खोए रहते थे। भगवान् श्री कृष्ण की कृपा ने उनके मन को इतना मोहित कर लिया था कि उन्हें बाहरी संसार की सुध ही नहीं रही। फिर भी बिना किसी सोच-विचार के खाना, पीना, सोना, बैठना, चलना आदि जैसे शारीरिक क्रियाकलाप करते रहते थे।
शुक्राचार्य राक्षसों के कुल गुरु थे। उनके दो पुत्र-शंड और अमर्क ने प्रह्लाद और अन्य राक्षस बालकों को राजनीति, अर्थशास्त्र आदि की शिक्षा देने को नियुक्त किया था। एक दिन, प्रह्लाद के पिता, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा-"बेटा! तुम्हें क्या पसंद है?" प्रह्लाद ने बिना हिचकिचाये उत्तर दिया, "पिताजी! मुझे वन में जाकर श्री कृष्ण की अखंड भक्ति करना पसंद है।" इस उत्तर को सुनकर, हिरण्यकशिपु को उस पीड़ा से भी अधिक पीड़ा महसूस हुई, जो उसे भगवान् वारह के हाथों अपने प्यारे भाई की मृत्यु की खबर सुनकर महसूस हुई थी। हिरण्यकशिपु के कट्टर प्रतिद्वंद्वी श्रीकृष्ण की भक्ति! भाई का हत्यारे की उपासना पुत्र कर रहा है!
हिरण्यकशिपु ने शंड और अमर्क को आदेश दिया कि वे प्रह्लाद को अपने आश्रम में ले जाएँ और उसे साम (तर्क) , दाम (मौद्रिक प्रलोभन) , दंड, भेद (विभाजन पैदा करना) और राजाओं के उद्देश्य और राजनीतिक सिद्धांत तथा राजा के प्रजा के प्रति कर्तव्य की शिक्षा दें।
राजनीति, कूटनीति और राज्य कला में शिक्षा पूरी होने के बाद, गुरु पुत्र प्रह्लाद को उनकी शिक्षाओं का परीक्षण करने के लिए हिरण्यकशिपु के पास ले गए। प्रह्लाद ने अपने पिता को सम्मान दिया और हिरण्यकशिपु ने अपनी आँखों से प्रेम के आँसू बहाते हुए प्रह्लाद को प्यार से अपनी गोद में ले लिया। उन्होंने प्रह्लाद से पूछा, "बेटा, अब बताओ, तुम्हें क्या पसंद है? तुमने क्या सीखा? तुमने अपने गुरुओं से क्या समझा?"
"पिताजी! भगवान् विष्णु की भक्ति करने के 9 तरीके (नवधा भक्ति) हैं-भगवान् की महिमा, नाम, लीलाओं को सुनना, गाना और स्मरण करना, उनके चरण कमलों की सेवा करना, वैदिक अनुष्ठान द्वारा भगवान् का पूजन करना। उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम का वंदन करना, उनका सेवक या मित्र बन कर उनकी सेवा करना और किन्तु-परंतु लगाये बिना आत्मसमर्पण कर देना। पहले, भगवान् के प्रति समर्पण करो और फिर नवधा भक्ति करो। यही वह ज्ञान है जो मैंने अर्जित किया है।"
यह सुनकर हिरण्यकशिपु ने क्रोधित होकर प्रह्लाद को गोद से दूर फेंक दिया और अपनी शक्तिशाली सेना के सेनापति को प्रह्लाद को मारने का आदेश दिया। सेनापति ने प्रह्लाद को मारने के लिए अनेक प्रयास किए-उसने प्रह्लाद को ऊँचे पर्वत से धक्का देके, पानी में डुबा के, आग में जला के, हथियारों से, मत्त हाथियों से कुचलवा के, जहरीले साँपों से कटा के, जहर का प्याला आदि, लेकिन प्रह्लाद बच गया। यह देखकर हिरण्यकशिपु चिंतित हो गया। उसे प्रह्लाद को मारने का कोई अन्य उपाय नहीं सूझा। गुरुपुत्रों के परामर्श से हिरण्यकशिपु ने एक बार फिर प्रह्लाद को पढ़ने के लिए भेजा।
गुरु के पुत्रों ने प्रह्लाद को धर्म यानी परिवार, समाज के प्रति कर्तव्यों का पालन, अर्थ यानी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सफलता प्राप्त करने के साधन और काम यानी सभी प्रकार के भोगों के बारे में शिक्षा देना शुरू किया। प्रह्लाद एक विनम्र सेवक की तरह आश्रम में रहते थे लेकिन उन्हें गुरु के पुत्रों द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान तनिक भी नहीं सुहाता था।
एक दिन, जब उसके शिक्षक किसी घरेलू काम से बाहर गए थे, प्रह्लाद अपने राक्षस सहपाठियों को उपदेश देने लगे। प्रह्लाद ने उनसे कहा, " जीव को बचपन से ही श्री कृष्ण के चरण कमलों का आश्रय लेना चाहिए। भक्ति को भविष्य पर छोड़ना बहुत बड़ी भूल है। वेद कहते हैं-भक्ति अभी करो (अर्थात विलंब न करो) क्योंकि संभव है कि कल तक तुम जीवित ही न रहो। यह मानव योनि अमूल्य है परंतु कब छिन जाये पता नहीं। इसलिए, जीव को श्री कृष्ण भक्ति तुरंत करनी चाहिए और इसे भविष्य पर नहीं छोड़ना चाहिए। भगवान् के चरणकमलों की शरण लेना ही इस मानव रूप की एकमात्र सफलता है। ईश्वर सभी प्राणियों का स्वामी, मित्र, प्रियतम और आत्मा हैं, इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए अधिक प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है।
प्रह्लाद ने बच्चों को आगे बताया कि श्री कृष्ण की कृपा केवल निःस्वार्थ भक्ति से ही प्राप्त की जा सकती है, आध्यात्मिक उत्थान के अन्य सभी साधन परमानंद नहीं दे सकते। वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है जहाँ आप कुछ समय के लिए इंद्रियों के सुखों का आनंद लेते हैं। अन्य योनि जैसे जड़ जीव (पेड़, पौधे आदि) और चेतन जीव (जैसे पक्षी, जानवर आदि) में भी सिद्धांत को समझने की बौद्धिक क्षमता नहीं है। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करना केवल मनुष्य योनि में ही संभव है। प्रह्लाद ने दोहराया, "मित्रों! मानव योनि में सबसे बड़ा उद्देश्य भगवान् कृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करना है।"
असुर बालकों ने उनसे पूछा–"भाई! तुम्हें यह ज्ञान किसने और कब दिया?"
इसके बाद प्रह्लाद ने कहानी सुनाई कि कैसे उसने अपनी माँ के गर्भ में यह ज्ञान प्राप्त किया, जब उसकी माँ कयाधु ऋषि नारद के आश्रम में रहती थी और ऋषि नारद ने विभिन्न ग्रंथों के दर्शन सुनाए और प्रह्लाद ने उन सभी व्याख्यानों को सुना, उन्हें याद किया और स्वयं भगवान् के शरणागत हो गए। भगवान् कृष्ण ने प्रह्लाद को माँ के गर्भ में अपने दिव्य रूप में दर्शन दिये। प्रह्लाद ने असुर बालकों को श्री कृष्ण की भक्ति करने का निर्देश दिया।
प्रह्लाद के प्रवचन सुनकर उनका मन भगवान् में लग गया। यह देखकर उनके गुरु डर गए और हिरण्यकशिपु को सूचित किया। क्रोध से जलते हुए हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को अपने हाथों से मारने का निश्चय किया। उसने दहाड़ते हुए प्रह्लाद से पूछा–"तेरा भगवान् कहाँ है?" प्रह्लाद ने कहा, "वह हर जगह है"। हिरण्यकशिपु ने कहा कि यदि वह सर्वव्यापी है, तो क्या वह इस स्तंभ में है? "प्रह्लाद ने उत्तर दिया," हाँ"। क्रोध से भरकर, हिरण्यकशिपु ने खंभे पर गदा से प्रहार किया और खंभा टूटा। उसमें से आधे शेर व आधे मनुष्य के रूप में भगवान् नरसिंह का भयावह रूप प्रकट हुआ। भगवान् नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को एक खिलौने की तरह उठाया और उसे दरबार के प्रवेश द्वार पर ले गए, जहाँ उन्होंने उसे अपनी जांघों पर लिटा कर पैने नाखूनों से फाड़ दिया।
भगवान् के हाथों और चेहरे पर खून लगा था, अत्यधिक क्रोध में हुँकार भर रहे थे। उनका ऐसा भयानक रूप देखकर माता लक्ष्मी, भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, शंकर सहित कोई भी उनके पास जाने का साहस नहीं जुटा सका। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें शांत करने के लिए प्रह्लाद को भेजा। प्रह्लाद को देखकर भगवान् नृसिंह का क्रोध तुरंत शांत हो गया। उन्होंने 5 वर्ष के प्रह्लाद के छोटे-छोटे पैरों को अपनी एक हथेली में रखा और दूसरा हाथ सिर पर रख कर आनंद में नाचने लगे। ब्राह्मस्पर्श पाकर प्रह्लाद आनंदित हो गये और आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगे।
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भगवान् को इसकी परवाह नहीं है कि स्थान पवित्र है या अपवित्र। भगवान् सभी स्थानों में समान रूप से निवास करता है। भगवान् सर्वव्यापी है। उन्होंने हर स्थिती में प्रह्लाद की रक्षा करके और अंत में एक राक्षस के महल के खंभे से प्रकट होकर अपनी सर्वव्यापकता साबित की। यही होली का वास्तविक संदेश है।
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