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कामनाएँ ही दुःख का मूल कारण हैं। जिस क्षण आपके मन में कोई कामना पैदा हो, समझ लें कि आपने दुःख, अशान्ति और अतृप्ति को आमंत्रित कर
कामनाएँ ही दुःख का मूल कारण हैं। जिस क्षण आपके मन में कोई कामना पैदा हो, समझ लें कि आपने दुःख, अशान्ति और अतृप्ति को आमंत्रित कर दिया।
देखने वाले को लगता है कि यह करोड़पति आलीशान मकान में रहता है, महंगी कार में चलता है, महंगे कपड़े और बढ़िया गहने पहनता है। वह बड़ा सुखी है, लेकिन वास्तव में करोड़पति अधिक धन प्राप्त करने की कामना में उतना ही दुखी है जितना भर पेट भोजन और सिर पर छत के लिये फुटपाथ वाला भिखारी दुखी है। अपनी-अपनी स्थितियों से उनके असंतोष की सीमा में कोई अंतर नहीं है।
बेघर व्यक्ति आधा पेट खाना खाकर भी फुटपाथ पर खर्राटे में सोता है । धनी को धन संरक्षित करने और बढ़ाने के तरीके खोजने के चक्कर में नींद ही नहीं आती ।
वास्तव में करोड़पति अधिक चिंताग्रस्त है क्योंकि उसे संपत्ति खोने का भय है। बेघर व्यक्ति आधा पेट खाना खाकर भी फुटपाथ पर खर्राटे में सोता है । धनी को धन संरक्षित करने और बढ़ाने के चक्कर में नींद ही नहीं आती। उसे कुछ घंटे की नींद लेने के लिए नींद की गोली लेनी पड़ती है।
कामना या तो पूर्ण होगी या अपूर्ण होगी । कामना की पूर्ति पर लालच पैदा होता है, और अपूर्ति पर क्रोध आता है । एक ओर क्षणिक सुख के पश्चात दुःख और दूसरी ओर केवल दुःख है । अतः दोनों सूरत में दुःख मिलना अवश्यंभावी है । अन्ततः कामनाएँ ही हमारे दुःख, अतृप्ति और अशान्ति का मूल कारण हैं।
तो क्या आनंद पाने के लिए सभी कामनाओं को त्यागना होगा?
हाँ कामना न होगी तो दुःख भी न होगा । लेकिन क्या कामनाएँ त्यागी जा सकती हैं? शास्त्रों के अनुसार जब तक जीव सनातन, असीम आनंद को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसका मन कामनाएँ बनाना नहीं छोड़ सकता । मन का कार्य कामनाएँ पैदा करना है । जब तक मन को वह आनंद न मिल जाए, जिसको पाने के पश्चात कुछ भी पाने की कामना न रहे, तब तक मन कामनाएँ बनाना समाप्त नहीं करेगा ।
उदाहरण के लिए एक व्यक्ति ₹2000 प्रति माह कमाता है। वह सुखद जीवन के लिए और अधिक कमाना चाहता है और दूसरी नौकरी कर लेता है। अब दो नौकरियों से प्रति माह ₹4000 कमाता है, फिर भी वह संतुष्ट नहीं है । जैसे-जैसे कमाई बढ़ी वैसे-वैसे कामनाएँ भी बढ़ती जा रही हैं, अतः अब वही व्यक्ति प्रति माह ₹8000 कमाना चाहता है ।
हम अपने को read नहीं करते कि हम जीवन भर कामनाएँ करते रहे हैं और उनमें से कई पूरी भी हुईं, फिर भी हम असंतुष्ट हैं। यदि हम इस एक पॉइंट पर गंभीरता से विचार करें तो पाएँगे कि भले ही हमें संसार का सारा ऐश्वर्य मिल जाए, फिर भी उससे अधिक पाने की कामना और बलवती होती जाएगी।
क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है? ऐसा क्यों है कि जितना अधिक हमें मिलता है हम उतना ही अधिक चाहते हैं? अधिक और बेहतर पाने की, सदा बनी रहने वाली, कामनाओं का अंत कब होगा ?
हमारे सनातन वैदिक धर्मग्रंथों का डिमडिम घोष है कि सांसारिक ऐश्वर्य से हम कभी संतुष्ट नहीं होते हैं और न हो सकते हैं । इसका कारण यह है कि हम मायिक वस्तुओं का संग्रह करते हैं। अनादि काल से, हम इस मायिक संसार के संबंधियों, मायिक वस्तुओं, प्रसिद्धि और धन इत्यादि में आनंद की खोज कर रहे हैं परंतु, असफल रहे । महान से महान उपलब्धि पर भी आनंद इसलिये नहीं मिला क्योंकि इस तथ्य से हम पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं कि हम दिव्य भगवान् का दिव्य अंश हैं । इसलिए भगवान् रूपी दिव्य आनंद को प्राप्त करके ही पूर्ण, तृप्त, और आनंदी होंगे।
भगवान् ने शरीर को चलाने के लिए इस संसार की रचना की । भगवान् द्वारा दिए गए इस शरीर को सुचारू रूप से चलने के लिए संतुलित मात्रा में भोजन, कपड़े और आश्रय दने के लिए धन की आवश्यकता होती है । उतना ही धन कमाएँ जितना शरीर के रख-रखाव के लिए आवश्यक है। अत्यधिक मायिक वस्तुओं का संचय, उनका उपभोग और दुरूपयोग करने से कष्ट बढ़ता है । इसीलिये शक्तिशाली पांडवों की माँ कुंती ने भगवान् श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि उन्हें जीवन में दुःख ही दुःख मिले, ताकि भगवान् सदा याद आएँ । कुंती ने वर मांगा कि, प्रभु! मुझे सांसारिक ऐश्वर्य न दो और जो कुछ हो उसे भी छीन लो, जिससे अकिंचन भाव बना रहे और क्षण-क्षण तुम्हारा ही स्मरण हो ।
यह सत्य है कि इंद्रियों पर नियंत्रण, मन से संयम आदि का अभ्यास करके, जीवन शांति पूर्वक व्यतीत होगा । तथापि, ऐसे साधनों से अनंत आनंद की प्राप्ति नहीं होगी। अनंत आनंद केवल तब प्राप्त होता है जब हम अपने आप को जीव अनुभव करें । यह मानें कि हम भगवान् के सनातन अंश हैं इसलिए केवल दिव्य प्रेम प्राप्त करके ही आनंद प्राप्त होगा । कितना भी उच्च स्तर तथा मात्रा का सांसारिक वैभव और प्रसिद्धि हमें अनंत आनंद नहीं दे सकता । इस प्रकार के लगातार मनन से सांसारिक वस्तुओं से स्वाभाविक वैराग्य हो जाएगा । उसी सौभाग्यशाली क्षण से दिव्य आनंद के स्रोत की खोज का श्रीगणेश होगा ।
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जग में न सुख दुख गोविंद राधे । मन की आसक्ति सुख दुःख दिला दे ॥ रा. गो. गी. 1472
संसार जड़ है । इसमें किंचित मात्र भी दुःख या सुख नहीं है । मन की आसक्ति से ही सुख और दुःख मिलता है।
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All the teachings of Jagadguruttam Shri Kripalu Ji Maharaj which is based on the timeless wisdom of the Vedas and other scriptures, presented in practical, easily understandable and modern context.
How do we know where we stand spiritually?
One cannot determine this on their own. The mind, which experiences ups and downs, can never pass judgement against itself. In other words, our mind is flawed, yet we are asking that same mind, "Am I flawed?" It will naturally
do ko jani bhūlo mana goviṃda rādhe।
eka mauta dūjo hari guru ko batā de॥
Always remember two spiritual truths: 1) the unpredictable nature of death and 2) devotion to Hari Guru.
The thought of death occasionally crosses our minds when we witness someone passing away. In those moments, we
कामनाएँ ही दुःख का मूल कारण हैं। जिस क्षण आपके मन में कोई कामना पैदा हो, समझ लें कि आपने दुःख, अशान्ति और अतृप्ति को आमंत्रित कर दिया।
देखने वाले को लगता है कि यह करोड़पति आलीशान मकान में रहता है, महंगी कार में चलता है, महंगे कपड़े और बढ़िया गहने पहनता है। वह बड़ा सुखी है, लेकिन वास्तव में करोड़पति अधिक धन प्राप्त करने की कामना में उतना ही दुखी है जितना भर पेट भोजन और सिर पर छत के लिये फुटपाथ वाला भिखारी दुखी है। अपनी-अपनी स्थितियों से उनके असंतोष की सीमा में कोई अंतर नहीं है।
वास्तव में करोड़पति अधिक चिंताग्रस्त है क्योंकि उसे संपत्ति खोने का भय है। बेघर व्यक्ति आधा पेट खाना खाकर भी फुटपाथ पर खर्राटे में सोता है । धनी को धन संरक्षित करने और बढ़ाने के चक्कर में नींद ही नहीं आती। उसे कुछ घंटे की नींद लेने के लिए नींद की गोली लेनी पड़ती है।
कामना या तो पूर्ण होगी या अपूर्ण होगी । कामना की पूर्ति पर लालच पैदा होता है, और अपूर्ति पर क्रोध आता है । एक ओर क्षणिक सुख के पश्चात दुःख और दूसरी ओर केवल दुःख है । अतः दोनों सूरत में दुःख मिलना अवश्यंभावी है । अन्ततः कामनाएँ ही हमारे दुःख, अतृप्ति और अशान्ति का मूल कारण हैं।
तो क्या आनंद पाने के लिए सभी कामनाओं को त्यागना होगा?
हाँ कामना न होगी तो दुःख भी न होगा । लेकिन क्या कामनाएँ त्यागी जा सकती हैं? शास्त्रों के अनुसार जब तक जीव सनातन, असीम आनंद को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसका मन कामनाएँ बनाना नहीं छोड़ सकता । मन का कार्य कामनाएँ पैदा करना है । जब तक मन को वह आनंद न मिल जाए, जिसको पाने के पश्चात कुछ भी पाने की कामना न रहे, तब तक मन कामनाएँ बनाना समाप्त नहीं करेगा ।
उदाहरण के लिए एक व्यक्ति ₹2000 प्रति माह कमाता है। वह सुखद जीवन के लिए और अधिक कमाना चाहता है और दूसरी नौकरी कर लेता है। अब दो नौकरियों से प्रति माह ₹4000 कमाता है, फिर भी वह संतुष्ट नहीं है । जैसे-जैसे कमाई बढ़ी वैसे-वैसे कामनाएँ भी बढ़ती जा रही हैं, अतः अब वही व्यक्ति प्रति माह ₹8000 कमाना चाहता है ।
हम अपने को read नहीं करते कि हम जीवन भर कामनाएँ करते रहे हैं और उनमें से कई पूरी भी हुईं, फिर भी हम असंतुष्ट हैं। यदि हम इस एक पॉइंट पर गंभीरता से विचार करें तो पाएँगे कि भले ही हमें संसार का सारा ऐश्वर्य मिल जाए, फिर भी उससे अधिक पाने की कामना और बलवती होती जाएगी।
क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है? ऐसा क्यों है कि जितना अधिक हमें मिलता है हम उतना ही अधिक चाहते हैं? अधिक और बेहतर पाने की, सदा बनी रहने वाली, कामनाओं का अंत कब होगा ?
हमारे सनातन वैदिक धर्मग्रंथों का डिमडिम घोष है कि सांसारिक ऐश्वर्य से हम कभी संतुष्ट नहीं होते हैं और न हो सकते हैं । इसका कारण यह है कि हम मायिक वस्तुओं का संग्रह करते हैं। अनादि काल से, हम इस मायिक संसार के संबंधियों, मायिक वस्तुओं, प्रसिद्धि और धन इत्यादि में आनंद की खोज कर रहे हैं परंतु, असफल रहे । महान से महान उपलब्धि पर भी आनंद इसलिये नहीं मिला क्योंकि इस तथ्य से हम पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं कि हम दिव्य भगवान् का दिव्य अंश हैं । इसलिए भगवान् रूपी दिव्य आनंद को प्राप्त करके ही पूर्ण, तृप्त, और आनंदी होंगे।
भगवान् ने शरीर को चलाने के लिए इस संसार की रचना की । भगवान् द्वारा दिए गए इस शरीर को सुचारू रूप से चलने के लिए संतुलित मात्रा में भोजन, कपड़े और आश्रय दने के लिए धन की आवश्यकता होती है । उतना ही धन कमाएँ जितना शरीर के रख-रखाव के लिए आवश्यक है। अत्यधिक मायिक वस्तुओं का संचय, उनका उपभोग और दुरूपयोग करने से कष्ट बढ़ता है । इसीलिये शक्तिशाली पांडवों की माँ कुंती ने भगवान् श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि उन्हें जीवन में दुःख ही दुःख मिले, ताकि भगवान् सदा याद आएँ । कुंती ने वर मांगा कि, प्रभु! मुझे सांसारिक ऐश्वर्य न दो और जो कुछ हो उसे भी छीन लो, जिससे अकिंचन भाव बना रहे और क्षण-क्षण तुम्हारा ही स्मरण हो ।
यह सत्य है कि इंद्रियों पर नियंत्रण, मन से संयम आदि का अभ्यास करके, जीवन शांति पूर्वक व्यतीत होगा । तथापि, ऐसे साधनों से अनंत आनंद की प्राप्ति नहीं होगी। अनंत आनंद केवल तब प्राप्त होता है जब हम अपने आप को जीव अनुभव करें । यह मानें कि हम भगवान् के सनातन अंश हैं इसलिए केवल दिव्य प्रेम प्राप्त करके ही आनंद प्राप्त होगा । कितना भी उच्च स्तर तथा मात्रा का सांसारिक वैभव और प्रसिद्धि हमें अनंत आनंद नहीं दे सकता । इस प्रकार के लगातार मनन से सांसारिक वस्तुओं से स्वाभाविक वैराग्य हो जाएगा । उसी सौभाग्यशाली क्षण से दिव्य आनंद के स्रोत की खोज का श्रीगणेश होगा ।
मन की आसक्ति सुख दुःख दिला दे ॥
रा. गो. गी. 1472
संसार जड़ है । इसमें किंचित मात्र भी दुःख या सुख नहीं है । मन की आसक्ति से ही सुख और दुःख मिलता है।
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